अकादमी कर रहीं साहित्य का सत्यानाश!
डॉ. सत्यवान सौरभ

साहित्य किसी भी देश और समाज का दर्पण होता है। इस दर्पण को साफ-सुथरा रखने का काम करती हैं वहां की साहित्य अकादमियां। लेकिन सोचिये क्या होगा? जब देश या राज्य का आईना सही से काम न कर रहा हो तो वहां की सरकार पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है। जी हां, ऐसा ही कुछ हो रहा है देश के राज्यों की साहित्य अकादमियों में। किसी भी राज्य की साहित्य अकादमी के अध्यक्ष है होते हैं राज्य के मुख्यमंत्री। मुख्यमंत्री जिस संस्था के अध्यक्ष हों वही संस्था अगर सही से काम न करें तो बाकी संस्थाओं की स्थिति का अंदाजा आप लगा सकते है।
आज हम देखते हैं कि अधिकांश साहित्य और कला अकादमियों के मंच पर पुरस्कृत होने वाले लोगों में अधिकतर को कोई जानता भी नहीं है। यह सच है कि आज जितनी राजनीति में राजनीति है उससे अधिक राजनीति साहित्य और कलाओं में है। प्रेमचंद ने साहित्य को राजनीति के आगे जलने वाली मशाल कहा था। लेकिन देश भर में आज साहित्य राजनेताओं के पीछे चल रहा है। पिछले दशकों में हुए साहित्य, संस्कृति और भाषा के पतन का असर आगामी पीढ़ियों तक जाएगा। लेकिन किसे फिक्र है। राज्य अकादमी पुरस्कारों की वार्षिक गतिविधियां संदिग्ध है। जो कार्य एक वर्ष में पूर्ण होने चाहिए उनको करने में सालों लग रहें है। पुरस्कारों के लिए मूल्यांकन प्रक्रिया स्पष्ट और समयानुसार नहीं है। उदाहरण के लिए हरियाणा साहित्य अकादमी के वार्षिक परिणामों की घोषणा का साल खत्म होने को है, मगर अभी तक नहीं हुई है। न ही आगामी साल का प्रपत्र जारी किया गया है। एक अकादमी के भीतर क्या- क्या खेल चलते हैं ? पारदर्शिता के अभाव में किसी को पता नहीं चलता।
वैसे कोई भी पुरस्कार या सम्मान उत्कृष्टता का पैमाना नहीं हो सकता। हिंदी भाषा में निराला, मुक्तिबोध, फणीश्वरनाथ रेणु, धर्मवीर भारती, राजेंद्र यादव, असगर वजाहत जैसे महत्वपूर्ण कवियों-लेखकों को भी साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं दिया गया और बहुत से ऐसे लेखकों को पुरस्कृत किया गया, जिन्हें कभी का भुलाया जा चुका है। इस बारे में विचार करना चाहिए और पुरस्कार की प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी बनाना चाहिए। आज जिस प्रकार से सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त करने के लिए कुछ योग्य एवं अयोग्य साहित्यकार, कवि, लेखक, कलाकार साम-दाम-दंड-भेद सब अपना रहे हैं और अपने प्रयासों में प्रायः सफल भी हो रहे हैं, उससे सम्मानों और पुरस्कारों के चयन की प्रक्रिया की विश्वसनीयता और पारदर्शिता पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। पुरस्कारों की दौड़ में साहित्य का भला नहीं हो सकता।
आज साहित्य और कला जगत में बहुत सी संस्थाएं काम कर रही हैं। इसे झुठलाया नहीं जा सकता कि किसी क्षेत्र विशेष या एक विचारधारा वाली संस्थाएं आपस में अनुबंध करके आगे बढ़ रही हैं। ये एग्रीमेंट यूं होता है कि आप हमें सम्मानित करेंगे और हम आपको। और ये सिलसिला लगातार चल रहा है अखबारों और सोशल मीडिया पर सुर्खियां बटोरता है। आम पाठक को इससे कोई ज्यादा लेना देना नहीं होता। अब बात करते है सरकारी संस्थाओं और पुरस्कारों की। इनकी सच्चाई किसी से छुपी नहीं। जिसकी जितनी मजबूत लाठी, उतना बड़ा तमगा। सिफारिशों के चौराहों से गुजरते ये पुरस्कार पता नहीं, किस को मिल जाएं। किसी आवेदक को पता नहीं होता। इनकी बन्दरबांट तो पहले से ही जगजाहिर है। ऐसे पुरस्कारों की विश्वसनीयता को लेकर देश भर में गंभीर आरोप लग रहे हैं। सच्चा रचनाकार इनके चक्कर में कम ही पड़ रहा है।
आज संस्थाएं एक दूजे की हो गई हैं। एक-दूसरे को सम्मानित करने और शॉल ओढ़ाने में लगी है। सरकारी पुरस्कार बन्दरबांट कहें या लाठी का दम। जितनी जान-पहचान उतना बड़ा तमगा। ये प्रमाण पुरस्कार विजेताओं की प्रामाणिकता पर सवाल उठाते हैं। आज देशभर की साहित्य अकादमियां पद और पुरस्कारों की बंदरबांट करने में लगी है। अधिकांश अकादमियों के कामकाज को देखकर तो यही लगता है। जब तक विशेषज्ञता के क्षेत्र में राजनीतिक नियुक्तियां होती रहेंगी तब तक ऐसी दुर्घटनाएं होती रहेगी। सिविल सेवा कमिशन और प्रदेशों की अकादमी में सदस्यों और अध्यक्षों की राजनीतिक नियुक्तियों ने इन संस्थाओं की विशेषज्ञता पर प्रश्नचिह्न लगाए हैं। पिछले दशकों में पुरस्कारों की बंदर बांट कथित साहित्यकारों, कलाकारों और अपने लोगों को प्रस्तुत करने के लिए विशेष साहित्यकार, पुरोधा कलाकार, साहित्य ऋषि जैसी कई श्रेणियां बनी है। जिसके तहत विभिन्न अकादमियां एक दूसरे के अध्यक्षों को पुरस्कृत कर रही है और निर्णायकों को भी सम्मान दिलवा रही है। इन पुरस्कारों में पारदर्शिता का अभाव है। बिना साधना के कैसा साहित्य?
अब समय आ गया है कि देश की सभी राज्य अकादमियों को केंद्रीय साहित्य अकादमी की तरह सचमुच स्वायत बनाया जाए और इनका काम पूरी तरह से साहित्यकारों, कलाकारों को सौंपा जाए। किसी भी अकादमी के वार्षिक कार्यों की प्रगति समयानुसार और पूरी तरह पारदर्शी बनाने पर जोर देना होगा ताकि सच्चे साहित्यकारों का विश्वास उन पर बना रहे।एजेंसी
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