इंदिरा गांधी के लिए मुसीबत बन गए थे संजय गांधी

नई दिल्ली। आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी के प्रधान सचिव का कार्यभार संभाल रहे पीएन धर ने उस दौर की गतिविधियों को अपनी किताब 'इंदिरा गांधी, आपातकाल और भारतीय लोकतंत्र' में लिखा है। इस पुस्तक में उस दौर के विवरण में जिस चरित्र का सबसे अप्रिय चित्रण है, वह हैं तत्कालीन प्रधानमंत्री के छोटे बेटे संजय गांधी।
पीएन धर लिखते हैं कि प्रधानमंत्री आवास ''असंवैधानिक'' गतिविधियों का केंद्र बन गया था क्योंकि कांग्रेस के जूनियर नेताओं की बातों पर ध्यान देने वाली अविश्वासी प्रधानमंत्री और उनके बेटे के प्रति वफादार नेताओं की वजह से प्रधानमंत्री सचिवालय कमजोर हो गया था।
संजय गांधी और हरियाणा के नेता बंसी लाल जैसे उनके वफादारों ने उस दौर में कांग्रेस में बढ़त हासिल कर ली थी। यहां तक कि प्रधानमंत्री भी संविधान में व्यापक बदलाव के लिए संविधान सभा के गठन के समर्थन में राज्य विधानसभाओं से प्रस्ताव पारित करवाने के उनके कदम से चिंतित थीं।
संजय गांधी के इस फैसले से नाराज थीं इंदिरा गांधी
पीएन धर 2000 में प्रकाशित इस पुस्तक में लिखते हैं, मुझे पता था कि उन्होंने कितनी सावधानी से संजय को संवैधानिक सुधारों पर सभी चर्चाओं से दूर रखा था। मुझे यह भी पता था कि तीन विधानसभाओं द्वारा उनकी जानकारी के बिना, लेकिन संजय की स्वीकृति से संविधान सभा के प्रस्तावों को पारित करने से वह कितनी नाराज थीं। वह आश्चर्य जताते हुए लिखते हैं, क्या संजय उनके लिए गले की फांस बन रहे थे?
संजय गांधी के लिए इंदिरा गांधी ज्यादा चिंतित थीं
उन्होंने कहा कि संविधान सभा का मुख्य उद्देश्य आपातकाल के शासन को जारी रखना और चुनाव स्थगित करना प्रतीत होता है। बंसीलाल ने धर से कहा था कि इसका उद्देश्य ''बहन जी'' (इंदिरा गांधी) को आजीवन अध्यक्ष बनाना होगा। आपातकाल हटाने के बाद मार्च, 1977 के चुनावों में जब कांग्रेस को भारी हार का सामना करना पड़ा, तो दिल्ली में इंदिरा गांधी के कथित अपराधों की कहानियां और जनता पार्टी की योजनाएं गूंज रही थीं। संजय गांधी के बारे में इंदिरा गांधी अधिक चिंतित थीं और अपने परिवार में ही अलग-थलग हो गई थीं।
धर लिखते हैं, ''राजीव गांधी को अपने भाई के प्रति कोई सहानुभूति नहीं थी। वह मुझसे मिलने आए थे और अपनी मां के बारे में बेहद ¨चिंतित व अपने भाई के प्रति गुस्से से भरे हुए थे। उन्होंने कहा था कि वह अपने भाई के कार्यों के मूकदर्शक बनकर रह गए थे।''
इस तरह हुई आपातकाल की घोषणा
इंदिरा गांधी की ओर से थोपे गए आपातकाल के अध्याय की शुरुआत 12 जून को इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज जगमोहन लाल सिन्हा के निर्णय से प्रारंभ होती है। 1971 के लोकसभा चुनावों में रायबरेली में इंदिरा का मुकाबला विपक्षी समाजवादी नेता राजनारायण से था। इंदिरा गांधी विजयी होती हैं, पर राजनारायण उनकी जीत को अदालत में चुनौती देते हैं।
उन्होंने उन पर अपने निजी सचिव एवं सरकारी अधिकारी यशपाल कपूर को चुनाव एजेंट बनाने, स्वामी अद्वैतानंद को 50 हजार रुपये घूस देकर निर्दलीय प्रत्याशी बनाने, वायुसेना विमानों का इस्तेमाल करने, चुनाव में डीएम और एसपी की अनुचित मदद लेने, वोटरों को शराब, कंबल बांटने आदि आरोप लगाए। जस्टिस सिन्हा ने श्रीमती गांधी का चुनाव रद कर छह वर्ष के लिए चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाया। उनके फैसले को प्रभावित करने की कोशिश की गई थी और उन्हें पदोन्नति का भी प्रलोभन दिया गया था। वे टस से मस नहीं हुए।
हाई कोर्ट के फैसले के बाद नैतिकता का तकाजा था कि इंदिरा इस्तीफा देकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करतीं, पर 12 जून को ही भीड़ ने उनके आवास के समक्ष जस्टिस सिन्हा को सीआइए एजेंट बताकर नारेबाजी की। तब गुजरात और बिहार में कांग्रेस सरकारों के खिलाफ जारी आंदोलन को जेपी दिशा दे रहे थे। इलाहाबाद हाई कोर्ट का निर्णय आने पर इंदिरा के त्यागपत्र की मांग लेकर विपक्षी दल लामबंद होने लगे और 25 जून को रामलीला मैदान, दिल्ली में सभा रखी गई। यह सभा 20 को होनी थी, पर जेपी के दिल्ली आने के पहले ही यहां आने वाली उड़ानें अचानक रद्द कर दी गईं।
अंततः सभा 25 जून को हुई। के सी त्यागी लोकदल के प्रतिनिधि के रूप में वहां थे। मंच का संचालन जनसंघ, जो बाद में भाजपा बनी, नेता मदनलाल खुराना कर रहे थे। जेपी ने इंदिरा सरकार को अवैध बताया और उनके इस्तीफे की मांग की तथा सरकारी कर्मियों एवं पुलिस वालों को ‘असंवैधानिक सरकार’ के आदेश न मानने को कहा। उन दिनों इंदिरा के बेटे संजय गांधी की सक्रियता बढ़ गई थी। वे आरके धवन, चौधरी बंसीलाल आदि से मिलकर विरोधियों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई पर जोर दे रहे थे। कांग्रेस में एक गुट का नेतृत्व युवा नेता चंद्रशेखर कर रहे थे, जो जेपी से संवाद के समर्थक थे। उनके प्रयासों से जेपी की दो मुलाकातें श्रीमती गांधी से हुईं, पर वे बेनतीजा रहीं।
इंदिरा गांधी प्रेस के स्वतंत्र रुख से खफा थीं। 25 जून को रात 11:45 पर आपातकाल की घोषणा वाले अध्यादेश पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन के हस्ताक्षर कराए गए और अगली सुबह 6 बजे कैबिनेट की आपात बैठक बुलाकर उस पर मुहर लगाई गई। इंदिरा ने सुबह रेडियो संदेश दिया, ‘भाइयों और बहनों, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। इससे आतंकित होने की जरूरत नहीं है...।’ विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी का सिलसिला 25 जून की मध्यरात्रि से कायम हो गया था। इन नेताओं की लिस्ट संजय गांधी और साथियों ने बनाई। तब अदालतों को भी निर्देश था कि बंदियों को जमानत न दी जाए।
इस दौरान इंदिरा गांधी ने खुद को सबसे अलग कर लिया था। अपने सर्वोच्च राजनीतिक संकट के समय उन्होंने अपने छोटे बेटे संजय को छोड़कर किसी पर भी भरोसा नहीं किया। धर ने कहा कि संजय गांधी अपनी मां के उन सहयोगियों और सहायकों को नापसंद करते थे, जिन्होंने उनकी मारुति कार परियोजना का विरोध किया था या उन्हें गंभीरता से नहीं लिया था।
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